धूप में लेटा था जो
कुछ निश्चिंत सा होकर
मुझे पास आता देख भागने को उद्यत हुआ
पर मैं इस से पहले ही बोल पड़ी
बड़ा ही अजीब स्वभाव है तुम्हारा
कितनी बार रंग बदलते दिन भर
कभी हरा पीला , तो कभी लाल, काला
इतना भी फैशन का शौक़ीन होना क्या
कि अपनी एक निश्चित पहचान ही ना रहे
बोलो कैसे तुम पर विश्वास करे कोई ? ''
सिर ऊँचा उठाकर उत्तर दिया उसने
'' ठीक कहा तुमने कि रंग बदलता हूँ अक्सर
पर यह भी तो पूछो ऐसा करता हूँ क्यों मै
शौक है यह मेरा या कोई भारी मज़बूरी ?
सच तो यह है कि रंग बदलने में
फैशन वैशन का दूर तक भी विचार नहीं बस , जान बचाने की कोशिश भर करता हूँ
तुम्ही कहो जान किसे होती नहीं प्यारी ?
छोटा सा जीव ठहरा , जहाँ भी जाता हूँ
हमेशा डरा और सशंकित हूँ रहता
न जाने कब , कहाँ , आहार बन जाऊँ
घात लगाये बैठे किसी भूखे दुश्मन का
इसीलिए तो यह युक्ति है अपनाई
कि जहाँ जैसा रंग हो वैसा ही बन कर
छुप रहता ऐसे कि किसी भी शिकारी को
पड़ता दिखाई नहीं बहुत पास से भी
बुरा न मानो तो मै भी कुछ पूछ लूँ ?
रंग बदलने के लिये मुझ पर हो हँसते
पर यह तो बताओ क्या तुम ऐसा नहीं करते
तुम्हें भी क्या किसी का डर है सताता ? ''
प्रश्न उसका तीर जैसा चुभ गया मुझको
उत्तर क्या दूँ कुछ समझ नहीं आया
सोचा नहीं था कि प्रतिप्रश्न कर बैठेगा
कुछ कहने के बजाय चुप रहना ही ठीक लगा
यह कहती भी कैसे कि रंग बदलना
जीवन- मरण का प्रश्न नहीं हमारे लिए
यह तो है अवसरवादिता की एक चाल
करते उपयोग जिसका जब भी हो संभव
कि हम तो बदलते हैं रंग अपने स्वार्थो की खातिर
उचित, अनुचित का विचार किये बिना ही
नैतिक मूल्यों को तिलांजलि देकर भी
पूर्ण करना चाहते मन की हर एकआकाँक्षा को
सोचते सोचते ग्लानि छाई मेरे मुख पर
देखकर हाल मेरा ,वह समझ गया सब कुछ
बोला व्यंग्यपूर्वक किन्तु ,जाते जाते पलटकर
'' अब तो न हँसोगी फिर कभी मुझ पर ?''
वह तो छुप गया जा पत्तों के बीच कहीं
पर मेरा मन उलझ गया अपने ही प्रश्न में
कि उठाऊँ उँगली किसी दूसरे की ओर कभी
या झाँक कर देखूँ अपने गिरेबान में पहले.