Friday, 3 October 2025

श्रीमदभगवद गीता ( काव्य रूपान्तर )

 प्रकाशक 

ईश्वरी दत्त द्विवेदी 

शिवपुर, कोटद्वार, (पौड़ी गढ़वाल)

प्रथम संस्करण---   1999

सर्वाधिकार  --  प्रकाशकाधीन

-

द्वितीय संस्करण   --   2009

स्व. ईश्वरीदत्त द्विवेदी जी की पुण्य स्मृति में उनके सुपुत्र श्री दिनेश चंद्र द्विवेदी द्वारा  प्रकाशित 


 तृतीय संस्करण ------    2025  

    डॉ इन्दु नौटियाल द्वारा संपादित एवं पुनर्प्रकाशित 


मुद्रक -----

प्रियंका ग्राफ़िक प्रिंटर्स 

देहरादून 


पेज 1 


आत्मकथ्य  (फोटो सहित )


पेज 2  

1--प्रस्तावना / शुभकामनायें 

1 से 7 तक 

तृतीय संस्करण 

1-भूमिका / संपादकीय

2-गीता का महात्म्य

3-  अनुक्रमणिका

4-  धृतराष्ट्र की व्यथा 


    मुख्य रूपान्तर 

अध्याय 1 से प्रारम्भ 


Tuesday, 30 September 2025

श्रीमदभगवदगीता -- हिंदी काव्य रूपान्तर (तृतीय संस्करण)

 धर्म, कर्म और अध्यात्म की त्रिवेणी श्रीमदभगवदगीता मानवता का  वह अमर गान है- जो  आत्मा को प्रकाश, चित्त को शांति और कर्म को दिशा प्रदान  करता है. महर्षि वेद व्यास की यह कालजयी कृति  मेरे पूज्य पिताजी  श्री ईश्वरीदत्त द्विवेदी की  सर्वाधिक प्रिय पुस्तक थी, जिसका अध्ययन वे आजीवन करते रहे.  इसके दिव्य सन्देश को सरल और सुगम काव्य रूप में ढालना उनके कवि ह्रदय की प्रबल इच्छा थी, जैसा कि उन्होंने प्रथम संस्करण के  'आत्म कथ्य 'में लिखा है. उनका अनुभव था  कि गीता की वाणी जब छन्दों की लय और काव्य की सुरभि से आप्लावित होकर कानों में  गूँजती है तो वह केवल मनन का विषय न रहकर  सीधे ह्रदय से  संवाद करती है.इसी भाव और विश्वास के साथ, अपने सतत अध्ययन और साहित्य साधना के बल पर उन्होंने  इस कृति का सृजन करके अपनी चिर आकांक्षा को पूर्ण किया.

 गीता जैसे अप्रतिम, कालजयी  संस्कृत ग्रन्थ का  यह काव्य -रूपान्तर  अपनी सरलता  और माधुर्य  से पाठकों को उस शाश्वत सत्य से परिचित कराता है जो श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर अर्जुन को उपदेश स्वरुप प्रदान किया था. यह ज्ञान केवल अर्जुन को ही नहीं, बल्कि उनके माध्यम से समस्त जगत को दिया गया उद्बोधन है, जिसमें जीवन को समझने के अनमोल सूत्र निहित हैं. यह रूपान्तर मेरे पूज्य पिताश्री की कठिन साधना का प्रतिफल है, उनका श्रद्धा भाव, गहन अध्ययन और भाषा कौशल इस कृति में सर्वत्र परिलक्षित है. संस्कृत के गूढ श्लोकों का भावार्थ सहज और प्रवाहपूर्ण छन्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है कि गीता का दार्शनिक गाँभीर्य  भी बना रहता है और इसकी जीवनोपयोगी शिक्षायें भी पाठक तक सरलता से पहुँच जाती हैं.

   इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 1999 में स्वयं उनके कर कमलों द्वारा हुआ था. अब से लगभग ढाई दशक पूर्व प्रकाशित इस रचना को सामान्य पाठकों के साथ -साथ साहित्य जगत में भी व्यापक सराहना मिलती रही है जिसके कुछ उदाहरण इस संस्करण में भी पढ़े जा सकते हैं.

वर्ष 2008 में पिताजी के स्वर्गवास  के  पश्चात्  उनकी पुण्य- स्मृति में  इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण मेरे अनुज  श्री दिनेश चंद्र द्विवेदी द्वारा सन 2009 में प्रकाशित किया गया, जिसे पूर्व की भाँति ही भरपूर प्रशंसा मिली.  उल्लेखनीय है कि प्रथम प्रकाशन से अब तक की सुदीर्घ अवधि में समय समय पर पाठकों  की मौखिक / लिखित  प्रतिक्रियायें निरंतर मिलती रही हैं जो इस बात की द्योतक हैं कि इतने वर्षो के बाद भी यह रचना कहीं न कहीं अब भी पढ़ी जा रही है, और मूल ग्रन्थ की भाँति आज भी प्रासंगिक और प्रभावी बनी हुई है.

 इस उत्कृष्ट काव्य रचना को एक नवीन संस्करण द्वारा कुछ और पाठकों तक पहुँचाने का विचार अनायास ही मेरे मस्तिष्क  में आया, जिसे किसी दैवी प्रेरणा का संकेत मानकर  मैंने श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य करते हुए साकार करने का प्रयास किया. मेरा मानना है कि यह कृति न केवल गीता के सन्देश को नई पीढ़ी तक पहुँचाने का माध्यम है, वरन उस श्रेष्ठ परंपरा का भी उदाहरण है जिसमें अध्यात्म और साहित्य का सुन्दर संगम दिखाई देता है यहाँ न केवल शास्त्र की गंभीरता  है, बल्कि काव्य का सौंदर्य भी है, न केवल उपदेश है, बल्कि आत्मीय संवाद भी है. 

अपने स्वर्गीय पिताजी की इस अमूल्य धरोहर  को उनके प्रति श्रद्धांजलि स्वरुप  पुनः प्रकाशित करते हुए मुझे परम संतोष की अनुभूति हो रही है. यह केवल एक पुस्तक नहीं, अपितु उनकी गहन तपस्या,  साहित्यिक मेधा, जीवन दृष्टि और आत्मीय स्मृतियों का जीवंत अभिलेख है . यह मेरा सौभाग्य है  कि  मुझे उनकी कठिन साधना के इस सुफल को एक बार फिर पाठकों तक पहुँचाने का अवसर मिला है. आशा करती हूँ कि  मेरा यह विनम्र प्रयास गीता के शाश्वत सन्देश को नई पीढ़ियों तक भी पहुँचाने  का माध्यम बन कर अधिकाधिक पाठकों  के जीवन  में  सार्थक एवं गुणात्मक परिवर्तन लाने में सहायक होगा.  

 नये और पुराने सभी पाठकों के लिये,

    अनेक शुभकामनाओं  के साथ,

      डॉ इन्दु नौटियाल 

विजयादशमी , 02 अक्टूबर, 2025

Friday, 5 September 2025

गीता- महिमा





                        गीताध्ययन   शीलस्य प्राणायाम परस्य च 

                        नैव सन्ति हि पापानि पूर्वजन्म कृतानि च


                               जो गीता का सतत अध्ययन 

                                  श्रद्धा से करता रहता 

                                पूर्व जन्म के पाप मुक्त हो

                                 प्रभु में विलय किया करता.




                  गीता शास्त्रमिदम पुण्यम यः पठेत्प्रयतः पुमान

                   विष्णो: पद्मवापनोति भय शोकादि वर्जितः


                            शुद्ध चित्त से जो मनुष्य --

                            पावन गीता का पठन  करे

                            शोक और भय रहित हुआ,

                            वह विष्णु धाम को गमन करे.


                    गीता सुगीता  कर्तव्या किमन्नैः, शास्त्र विस्तरै:

                 या स्वयंपद्मनाभस्य मुखपद्माद्वि निःसृता.


                           कमल नाभ के मुख से निकला--

                            सकल वेद शास्त्रों का  सार

                           गीताध्ययन, मनन, चिंतन से --

                            करता नर भव सागर पार.



                   सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपाल नन्दनः

                  पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् 


                             शास्त्र, उपनिषद गोधन समय हैं,

                              दुहने वाले बृजनन्दन

                             वत्स रूप में अर्जुन ने ---

                              अमृत का किया प्रथम सेवन


                एकम् शास्त्रम देवकीपुत्र गीतमेको  देवो देवकीपुत्र एव

                एको मंत्रस्तस्य, नामानि यानि कर्मार्प्येकं तस्य देवस्य सेवा.


                             शास्त्रों में सर्वोत्तम गीता - 

                            निकली जिन प्रभु के मुख से

                             उनके नाम - मन्त्र  की माला,

                              जो जपता रहता सुख से.


             



      

            

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Thursday, 4 September 2025

आत्म - कथ्य





अपने अल्प ज्ञान के आधार पर किये गये इस  काव्य रूपान्तर को मैं सर्व प्रथम अपने आराध्य देव वासुदेव
भगवान  श्री कृष्ण के चरणों में ही समर्पित करता हूँ जिनकी कृपा से  मैं इस अत्यंत
 कठिन कार्य को संपन्न करनेमें समर्थ हो सका.
पैंतीस वर्ष की सुदीर्घ अवधि  में पुलिस विभाग की सेवा  में व्यस्त रहते हुए भी गीता का अध्ययन करता रहा हूँ. और उसके संदेशों, शिक्षाओं  का प्रभाव मन - मस्तिष्क पर निरंतर अंकित होता हुआ महसूस किया. छात्र जीवन से ही काव्य -रचना में भी रुचि थी, अतः मेरी हार्दिक इच्छा थी कि इस महान, पावन और अद्वितीय  ज्ञानामृत का सरल हिंदी में अनुवाद करके इसे उन लोगों तक भी पहुँचाया जाये जो संस्कृत भाषा का ज्ञान न होने के कारण इस अमृत वाणी से वंचित रह जाते हैं.

प्रभु- कृपा से सकुशल सेवा- निवृत्ति पर मुझे इस इच्छा को कार्य रूप में परिणत करने के  लिये पर्याप्त समय मिला और मैं उसका सदुपयोग करने में जुट गया. अनेक व्यवधानों के कारण  लगभग दो वर्ष की अवधि में यह कार्य संपन्न हो पाया. अब, जब कि यह रचना आकार  ले चुकी है, तो मैं इसे उन समस्त धर्म - प्राण   नर - नारियों को अर्पित करना चाहता हूँ, जिन्हें  भगवान में अटूट आस्था है और जो उनके मुखारविन्द से निः सृत इस अमरवाणी का रसास्वादन करने के इच्छुक हैं.

मैं इस रूपान्तर को सभी विद्वत जन एवं गीता -मर्मज्ञों  को भी इस क्षमा याचना सहित अर्पित करता हूँ कि इसमें वे जो भी त्रुटियाँ अथवा कमियाँ पायें, उन्हें मेरी भक्ति - भावना के रूप में स्वीकार करें, क्योंकि विषय अत्यंत  गहन है और इस पावन गंगा के श्लोकों की देश- विदेश के विद्वान  अपने- अपने दृष्टि कोणों से  व्याख्या करते आये हैं. मैंने जन साधारण के हित में उसे सरल भाषा में प्रस्तुत करने का साहस किया है. यदि मेरा यह प्रयास  सफल हुआ तो यह मेरे जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि होगी, और मैं अपने जीवन को धन्य  समझूँगा.
    पुस्तक  के अनेक छन्दों के रूपान्तर में मुझे अमूल्य सहयोग एवं पथ प्रदर्शन प्रदान करने के लिये मैं हिंदी के मूर्धन्य विद्वान, लेखक और कवि डॉ श्रीविलास डबराल 'विलास' का ह्रदय से आभारी हूँ.
   पुस्तक के प्रकाशन में मुझे पर्याप्त आर्थिक सहायता एवं प्रोत्साहन के लिये  मैं
 अपने अभिन्न मित्र  पं. बद्रीदत्त शर्मा और उनके सुपुत्र  चि. राजेंद्र प्रसाद शर्मा, मेरी पुत्री हेमा एवं डॉ. डी. एस. पोखरिया ( हिंदी विभाग, कुमाऊं विश्वविद्यालय) का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ, जिनके सहयोग से इस पुस्तक का प्रकाशन संभव हो सका. मैं अपनी पत्नी उमा का भी आभारी हूँ. रूपान्तर संपन्न होने तक मुझे उनका अनवरत सहयोग एवं प्रोत्साहन मिलता रहा.
                                                          ईश्वरीदत्त द्विवेदी.

 (प्रथम संस्करण से )
          

      


Tuesday, 2 September 2025

गीता काव्य रूपान्तर -- तृतीय संस्करण

 मैं गायन में 'वृहद साम',
        छन्दों में हूँ गायत्री मन्त्र 
' मार्गशीर्ष ' द्वादस मासों में
           ऋतुओं में ऋतुराज वसंत  
  
                                                               10/35
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  धर्म, ज्ञान और अध्यात्म के दृष्टा श्री कृष्ण की स्वयं के लिये की गयी यह  अवधारणा गीता की भी सटीक व्याख्या है. उनके उपदेशों से सृजित श्री मद्भगवद्गीता भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है. भारत की आत्मा है. एक ऐसा ग्रन्थ जो न केवल धर्म, अपितु नीति शास्त्र का चितेरा और कर्मयोग का अग्रणी शास्त्र भी है, जो केवल धार्मिक ग्रन्थ नहीं, वरन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मार्ग दिखाने वाली ज्योति शलाका है जिसमें धर्म, कर्त्तव्य  और भक्ति का प्रकाश समाहित है और इसीलिए यह समस्त शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ  मानी गयी है.

ऐसे अप्रतिम ग्रन्थ गीता का यह काव्यरूपांतर अपनी सरलता और माधुर्य से पाठकों को उस शाश्वत सत्य  से परिचित कराता है जो श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर  अर्जुन को उपदेश स्वरुप प्रदान किया था. यह ज्ञान केवल अर्जुन को ही नहीं बल्कि उनके माध्यम से समस्त जगत को दिया गया उद्बोधन है जिसमें जीवन को समझने के अनमोल सूत्र  निहित हैं. प्रस्तुत रूपान्तर  मेरे पूज्य पिताजी की कठिन साधना का प्रतिफल है. उनका श्रद्धा भाव, गहन अध्ययन और भाषा कौशल  इस कृति में परिलक्षित है. संस्कृत के गूढ श्लोकों  का भावार्थ सहज और प्रवाहपूर्ण छन्दों में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया  हैं कि गीता का दार्शनिक गांभीर्य भी बना रहता है और  साथ ही इसकी जीवनोपयोगी  शिक्षायें भी पाठक तक सरलता से पहुँच जाती हैं.

वर्ष 1999 में प्रकाशित इस रचना को  सामान्य पाठकों के साथ - साथ साहित्य जगत में व्यापक सराहना मिली. पिताजी के स्वर्गवास के पश्चात्  सन 2009  में मेरे अनुज  श्री दिनेश चंद्र द्विवेदी द्वारा इसका द्वितीय संस्करण मुद्रित कराया गया,  जिसे पुनः भरपूर प्रशंसा मिली. इन दो दशकों की अवधि में  समय - समय-- पर अनेक पाठकों से  प्रतिक्रियायें मिलती रही हैं, जो इस बात की द्योतक हैं कि  इतने वर्षों के बाद भी यह पुस्तक  कहीं न कहीं  पढ़ी और सराही जा रही है और मूल ग्रन्थ की भाँति आज भी  प्रासंगिक और प्रभावी बनी हुई है, अतः एक नवीन संस्करण द्वारा इस रचना को पुनः प्रकाशित कर  कुछ और सुधी पाठकों तक  भी पहुँचाने  का विचार मेरे  मन में आया, जिसे किसी दैवी प्रेरणा का संकेत मानकर मैंने श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य करके साकार करने का प्रयास किया है. 

  प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से पूर्ववर्ती संस्करणों के  स्वरुप में सामान्य सा परिवर्तन है ,किन्तु मूल रचना यथावत  है.  वह स्वयं में  ही इतनी परिपूर्ण  है कि उसमें कुछ भी जोड़ने या घटाने की न तो आवश्यकता  है और न  औचित्य, अतएव इस नवीन कलेवर में भी उसे पूर्ण सम्मान के साथ ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है.

 अपने स्वर्गीय पिताश्री  की इस अनमोल कृति के नवीन संस्करण को उनके प्रति श्रद्धांजलि स्वरुप प्रकाशित करते हुए  मुझे  परम संतोष की अनुभूति हो रही है. यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनकी अमूल्य साधना  के इस  सुफल को पुनः पाठकों तक पहुँचाने का  अवसर मिला है. आशा करती हूँ  कि  पूर्व की भाँति  यह  पुस्तक भी नये \ पुराने  सभी पाठकों को गीता के अमृत सन्देशों से समृद्ध और आनंदित  करेगी  और वे  इसको उसी श्रद्धा और प्रेम से अंगीकार करेंगे जिस भाव से इसे पुनर्प्रकाशित किया गया है

. इन्दु नौटियाल

    देहरादून



Monday, 1 September 2025

श्री मद्भगवद्गीता-- हिंदी काव्य रूपान्तर -- श्री ईश्वरी दत्त द्विवेदी


                                                                       प्रस्तावना
                                                              

श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय संस्कृति  की अमूल्य निधि है. यह केवल धार्मिक ग्रन्थ नहीं अपितु मानव जीवन  का परम मार्गदर्शक है, जो मानव को उसके कर्तव्य, धर्म और  आत्म ज्ञान की  ओर  उन्मुख करता है.  गीता का उपदेश केवल युद्ध - भूमि तक सीमित नहीं है, वरन यह समस्त मानवता के लिये एक शाश्वत सन्देश है, जो प्रत्येक युग में प्रासंगिक बना रहता है. इसमें अर्जुन और श्री कृष्ण का संवाद हर जिज्ञासु आत्मा और उसके अन्तःकरण में स्थित ईश्वर के बीच का संवाद है. इसका प्रत्येक श्लोक जीवन के जटिलतम प्रश्नों का  उत्तर प्रदान करता है और जिज्ञासु को  आत्मिक शांति और समाधान की ओर ले जाता है.गीता हमें यह सिखाती है कि संकट, मोह और  भ्रम  की घड़ी में भी कर्तव्य परायणता, निष्काम भाव और आत्मिक दृढ़ता ही मानव का सच्चा आश्रय है.

इसी गहन दार्शनिक और आध्यात्मिक ग्रन्थ को सुलभ और सरस बनाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है श्री ईश्वरी दत्त द्विवेदी ने. उनका यह काव्य रूपांतर संस्कृत श्लोकों की गंभीरता को बनाये रखते हुए हिंदी छन्दों की मधुरता में ढला हुआ है. इस प्रस्तुति  से  गीता का अमृत सन्देश केवल विद्वानों तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि साधारण पाठक भी उसकी गहराई को सहज भाव से आत्मसात कर सकता है. 

लेखक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने भावानुवाद  में कहीं भी मूल ग्रन्थ की गरिमा से समझौता नहीं किया. गीता के प्रत्येक अध्याय, प्रत्येक श्लोक के सार को उन्होंने ऐसे सरल और प्रवाहपूर्ण छन्दों में ढाला है जो पाठक को दार्शनिक गंभीरता से बोझिल नहीं करते, बल्कि रस और प्रेरणा से भर देते हैं. उनके शब्दों में दार्शनिक विवेक के साथ -साथ भक्ति का माधुर्य और काव्य की सरसता भी झलकती है.

आज के समय में, जब जीवन की भागदौड़, भौतिकता और तनाव ने मनुष्य को अशांति और असंतोष से भर दिया है, गीता के उपदेश पहले से भी अधिक आवश्यक प्रतीत होते हैं. श्री द्विवेदी द्वारा किया गया यह रूपान्तर  केवल उपदेशात्मक ग्रन्थ नहीं अपितु आत्मा के लिये अमृत स्रोत बन कर सामने आ जाता है.छन्दों का लयात्मक प्रवाह पाठक को बाँध लेता है और सन्देश ह्रदय तक सहजता से पहुँच जाता है. यही इस कृति की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि वह मन और मस्तिष्क दोनों को ही स्पर्श करती है.

   यह काव्य - रूपान्तर केवल अनुवाद नहीं, बल्कि साधक का आत्मानुभव है. इसमें  लेखक का गहन अध्ययन, अध्यात्म के प्रति उनकी आस्था और साहित्यिक अभिरुचि का  अद्भुत संगम  दिखाई देता है उन्होंने गीता को अपने अन्तःकरण से जी कर ही उसके  भावों को कवित्व में ढाला है, इसीलिए यह कृति ह्रदय स्पर्शी बन पड़ी है.

इस रूपान्तर  के माध्यम से गीता का शाश्वत सन्देश नई पीढ़ी तक पहुँचाना सराहनीय प्रयास है. यह केवल गीता का पुनर्पाठ नहीं बल्कि जीवन- मूल्यों की  पुनर्स्थापना भी है. जब - जब  मनुष्य अपने मार्ग से विचलित होता है, तब - तब  गीता का यह स्वर उसे सही दिशा दिखाता है. गीता के सन्देश निः संदेह उस आलोक स्तम्भ की तरह हैं जो अंधकार में भटके पथिक को उसकी सही राह दिखाता है.

 यह कृति न केवल गीता के सन्देश को नई पीढ़ी तक  पहुँचाने का माध्यम है वरन उस  श्रेष्ठ परंपरा  का भी उदाहरण है जिसमें अध्यात्म और साहित्य  का सुन्दर संगम  दिखाई देता है यहाँ न केवल शास्त्र की गंभीरता है, बल्कि काव्य का सौंदर्य भी है, न केवल उपदेश है, बल्कि आत्मीय संवाद भी है. यह काव्य - रूपान्तर समय की माँग है क्योंकि इसके माध्यम से गीता का शाश्वत सन्देश अधिकाधिक  पाठकों तक पहुँच कर उनके जीवन की राह को आलोकित करेगा 

Wednesday, 18 June 2025

एक पर्वत, एक योगी

 



        एक पर्वत,एक योगी 

       नीला आकाश! दूर, दूर तक फैली हिमाच्छादित  चोटियाँ 

      उनके बीच एक शिखर,  दीखता है शांत, 

       लेकिन उसमें कम्पन भी है, 

      जैसे भीतर ध्यान चल रहा हो.

     उसकी चुप्पी में गूँज है  आत्मा की --

     वह बोलता  नहीं किन्तु सुनता है सब कुछ.       

     वह चलता नहीं,

      पर बहती हैं  असंख्य जलधारायें  उस से.

      उसकी ऊँचाई तुम्हें सिर झुकाना सिखाती है-

      और उसकी कठोरता-- अपने भीतर करुणा को सहेज रखना

       वह योगी है -- चिर - समाधिस्थ --

       फिर भी सदैव जागृत.


Sunday, 20 April 2025

COUNT YOUR BLESSINGS

      

Start counting your blessings 

Right now

scattered around they are

In number and ways 

More than you can imagine.


Here is the great, good Earth 

You are standing upon

Enjoying the countless bounties

She offers to you freely

Without asking for a return favour. 


Enveloping it is the atmosphere

Balancing the vital elements

The air, fire and water cycle

 To ensure life keeps flourishing

 Upon this vast  planet.


   And the seamless blue sky

   Overlooking  like an angel

   Is Sending light and warmth 

   From its  heavenly lamps 

    The glorious Sun and Moon


     Being alive herein

    With  such unique gifts assured

     Isn't an ultimate blessing in itself

     To feel truly grateful to

     The Supreme  Provider?