Thursday 15 March 2018
Tuesday 13 March 2018
राम --- तुम्हें प्रणाम !
समय - शिला पर उत्कीर्ण
सत्यम, शिवम् ,सुन्दरम की
शाश्वत कल्पना को साकार करता
चिरंतन मर्यादा का अनुपम पर्याय
एक सुन्दर नाम
' राम '
स्वयं परमेश्वर थे तुम , या उनके --
अनेक अवतारों में से एक --
दैवी गुणों से संपन्न महामानव ,
अथवा आजीवन संघर्षोंकी अग्नि में
तप कर कुंदन बने
एक साधारण मनुष्य ?
मात- पिता के सहज स्नेह भाजन
अनुज बन्धुओं के आदर्श मार्गदर्शक
ऋषिकुल के यज्ञ , तपश्चर्या को
निर्विघ्न संपन्न कराने का
दायित्व निभाते किशोर
राजकुमार राम !
सघन वन के भीतर जन- शून्य एकांत में
निर्दोष होकर भी , समाज से बहिष्कृत
संवेदनशून्य बैठी शिलावत नारी को
समुचित सम्मान देकर
पुनर्जीवित करते सरल , सहृदय
न्यायप्रिय राम !
पिता की आज्ञा सहज शिरोधार्य किये
सत्ता , वैभव, को तृणवत त्याग कर
निर्विकार मन, वन की दिशा में
पत्नी सहित गमन करते
वीतरागी सन्यासी से
युवराजा राम !
सुदूर वन प्रान्तर में सदा से उपेक्षित
दलित , पीड़ित , शोषित,
वनवासी समाज को
सम्मान और स्नेह देकर
मित्रवत अपनाते
जन - जन के नायक
वनवासी राम !
अपरिमित वैभव और अविजित शक्ति के
मद में आकंठ डूबी अविवेकी सत्ता को
अचूक शर - संधान से भूलुंठित कर
असत्य पर सत्य की विजय सिद्ध करते
परम पराक्रमी
धनुर्धारी राम !
समरसता और न्याय की
आधारशिला पर
स्वर्गतुल्य अनुपम ' रामराज्य ' के संस्थापक
संस्कृति , सिद्धान्तों के सजग संपोषक
सर्वकालिक पूजनीय, मर्यादा पुरुषोत्तम
रघुवंशी राम !
शत - शत प्रणाम !!!
हे ज्योतिपुंज .....
अपरिमित है तुम्हारा साम्राज्य
और विलक्षण प्रभामंडल ,
जीवन के अनन्य पर्याय -
हे आलोकपुंज सूर्य !
सात रंगों की अनिंद्य आभा को
समाविष्ट करता
अगणित इन्द्रधनुषों का उत्स है
तुम्हारा उज्ज्वल प्रकाश --
प्रकाश --जो कि उद्भासित करता है
समस्त जड़-चेतन को बिना भेद भाव
और करता है सुनिश्चित प्राणिमात्र का अस्तित्व
अपनी अनंत ऊष्मा और ऊर्जा के
चिरंतन प्रवाह से !
एकमात्र तुम ही तो हो
जो निष्फल कर सकते सहज ही
अवान्छित अतिवृष्टि के क्रूर आयोजन को
अपनी ज्वलन्त किरणों की अग्निवर्षा से
अहंकारी मेघों का अस्तित्व मिटाकर
अनायास ही नहीं प्राप्त तुमको
यह परम वन्दनीय देवत्व पद
क्योंकि स्वयं निराकार रहकर
इस तेजोमय स्वरुप में ढाला है तुम्हें
उस अदृश्य ,अनुपम रचयिता ने ,
और बनाया है अपना प्रतिनिधि
सार्वभौमिक कल्याण के निमित्त .
इसीलिए तो हो सर्वकालिक समादरित तुम
हे अथक कर्मयोगी
आलोकपुंज सूर्य!
Monday 12 March 2018
IN THE MORNING
'' Wake me up in the morning,
Or I will be late for school,''
I messaged to the sun,
Shining on the other side of the globe.
And the very first rays of the day,
Entered my room silently,
Falling directly on ,
My dreaming eyes!
'' Wake me early tomorrow '
I've to go for a walk in the park '',
I whispered to the birds,
Nestled in the tree near my bedroom.
And while it was still dark outside,
I heard their chirruping and fluttering,
Just outside my window,
Breaking the silence of the dawn!
'' Could you wake me at four, Mother ''
I asked her, with my eyes drooping,
' ' I have to revise my notes,
For tomorrow's exam .''
She did make me get up,,
At the right time,
Just when I needed to,
And wished me good luck.
I thanked her as she left,
Then noticed a chair,
By my bedside,
That didn't use to be there.
It was learnt only later
That she had kept sitting all night,
Lest she should fall asleep
And fail to wake me up
Lest she should fall asleep
And fail to wake me up
Sunday 11 March 2018
THE INVISIBLE
Or heard His voice?
I know you won't claim that,
Nor would I.
I know you won't claim that,
Nor would I.
But as I look around,
I feel the presence of a spirit,
Manifest in every single thing,
Living or otherwise.
The boundless stretch of the blue,
Overseeing the earth below,
Covering it from end to end,
Like the most concerned guardian.
And the earth all stretched about,
Enlivened with myriad creatures,
Amazes me with its capacity,
To hold so much in its sphere.
The ocean touching the horizon,
Sets me wondering often,
Why it never breaks its shores,
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