अदम्य आकांक्षा लिये
किया था आरम्भ एक सफ़र
माता पिता के आशीर्वचन
गुरुजनों की शुभाशंसा
पढ़े सुने आदर्शों का पाथेय
स्वर्णिम भविष्य के स्वप्न, संकल्प
और आत्मविश्वास का ज्योति दीप लेकर
राहों में मिलते गए जीवन - जगत के
कटु यथार्थ, संघर्षों के कंटकाकीर्ण वन-प्रान्तर
नित नवीन चुनौतियों के गतिरोधी पत्थर
किन्तु रुकना तो कोई विकल्प न था
ठोकर खाकर भी आगे बढ़ना ही था श्रेयस्कर
बारी बारी से साथ जुड़ते रहे प्रशंसा- निन्दा
सफलता- विफलता ,जीवन यात्रा के वैविध्यपूर्ण अनुभव
जिन्हें देखते सुनते , समझते न समझते ,
सरकते गए दिवस, मास ,वर्ष और दशक
फिर एक दिन आ पहुंचा बिन बुलाये अतिथि सा
सेवा निवृत्ति नामक वह पूर्व निश्चित दिवस
चिर -प्रतीक्षित पर फिर भी अयाचित सा
जीवन के अनेकानेक विरोधाभासों की तरह
जो प्रिय तो थे किन्तु सहज स्वीकार्य नहीं
पारंपरिक विदाई समारोह में
सद्भावपूर्ण शुभेच्छाओं की बौछार
अनगिनत स्मृतिचिह्न, सुरभित पुष्पगुच्छ
भावभीना प्रशस्तिपत्र , साथियों के स्नेह वचन
और उस अपूर्व अनुभव के बीच
पूर्णता का एक अद्भुत अहसास.
भावविह्वल ह्रदय , पर शांत , संतुष्ट मन
अनगिनत मीठी यादोंकी सौगातें समेटे
घर लौटते हुए अनायास ही सोचा
एक बार पीछे मुड़कर देखूँ तो सही
जीवन के इस कालखण्ड में
कैसी रही होगी अपनी भूमिका !
इस बीच जो किया -,कहा , देखा-समझा
उसमें कितना खरा था और कितना नहीं
कितना था सार्थक और मूल्यवान
कितना व्यर्थ और , अनपेक्षित.
प्रश्न था सरल , किन्तु चंद पलों में
कैसे हो पाती दशकों में किये -अनकिये की
पुनरावृत्ति और समुचित समीक्षा,
अपने ही प्रश्न का उत्तर देना
लग रहा था कितना कठिन !
इसलिए बस सार -संक्षेप में किया
इतना ही निवेदन -- कि नहीं थी कभी
किसी विशेष सम्मान कीअपेक्षा
स्वयं को मिले दायित्वों को
यथाशक्ति सम्पादित करना ही रहा
लक्ष्य और प्रयास सदा
और आज लौट रही हूँ घर की ओर
इसी जीवन -दर्शन से मिली
- सहज आत्मतुष्टि का
अदृश्य किन्तु निश्चित
पुरस्कार ले कर !
माता पिता के आशीर्वचन
गुरुजनों की शुभाशंसा
पढ़े सुने आदर्शों का पाथेय
स्वर्णिम भविष्य के स्वप्न, संकल्प
और आत्मविश्वास का ज्योति दीप लेकर
राहों में मिलते गए जीवन - जगत के
कटु यथार्थ, संघर्षों के कंटकाकीर्ण वन-प्रान्तर
नित नवीन चुनौतियों के गतिरोधी पत्थर
किन्तु रुकना तो कोई विकल्प न था
ठोकर खाकर भी आगे बढ़ना ही था श्रेयस्कर
बारी बारी से साथ जुड़ते रहे प्रशंसा- निन्दा
सफलता- विफलता ,जीवन यात्रा के वैविध्यपूर्ण अनुभव
जिन्हें देखते सुनते , समझते न समझते ,
सरकते गए दिवस, मास ,वर्ष और दशक
फिर एक दिन आ पहुंचा बिन बुलाये अतिथि सा
सेवा निवृत्ति नामक वह पूर्व निश्चित दिवस
चिर -प्रतीक्षित पर फिर भी अयाचित सा
जीवन के अनेकानेक विरोधाभासों की तरह
जो प्रिय तो थे किन्तु सहज स्वीकार्य नहीं
पारंपरिक विदाई समारोह में
सद्भावपूर्ण शुभेच्छाओं की बौछार
अनगिनत स्मृतिचिह्न, सुरभित पुष्पगुच्छ
भावभीना प्रशस्तिपत्र , साथियों के स्नेह वचन
और उस अपूर्व अनुभव के बीच
पूर्णता का एक अद्भुत अहसास.
भावविह्वल ह्रदय , पर शांत , संतुष्ट मन
अनगिनत मीठी यादोंकी सौगातें समेटे
घर लौटते हुए अनायास ही सोचा
एक बार पीछे मुड़कर देखूँ तो सही
जीवन के इस कालखण्ड में
कैसी रही होगी अपनी भूमिका !
इस बीच जो किया -,कहा , देखा-समझा
उसमें कितना खरा था और कितना नहीं
कितना था सार्थक और मूल्यवान
कितना व्यर्थ और , अनपेक्षित.
प्रश्न था सरल , किन्तु चंद पलों में
कैसे हो पाती दशकों में किये -अनकिये की
पुनरावृत्ति और समुचित समीक्षा,
अपने ही प्रश्न का उत्तर देना
लग रहा था कितना कठिन !
इसलिए बस सार -संक्षेप में किया
इतना ही निवेदन -- कि नहीं थी कभी
किसी विशेष सम्मान कीअपेक्षा
स्वयं को मिले दायित्वों को
यथाशक्ति सम्पादित करना ही रहा
लक्ष्य और प्रयास सदा
और आज लौट रही हूँ घर की ओर
इसी जीवन -दर्शन से मिली
- सहज आत्मतुष्टि का
अदृश्य किन्तु निश्चित
पुरस्कार ले कर !
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