अद्ध्याय--- ६
कर्मो में संलिप्तरहे जो--
फल की चिंता किये बिना
उसके अन्दर गुण होता है
सन्यासी; योगी जितना
( श्लोकसंख्या १)
अनासक्त जो कर्मो में
इन्द्रिय भोगों में रह पाता
संकल्पों का त्यागी तब वह -
नर योगी है कहलाता (४)
अपने द्वारा ही सम्भव है
जीवन में अपना उद्धार
वरन अधोगति में फंस कर तो
कर न सके भवसागर पार
इस जग में कोई न किसी का
शत्रु या कि सुहृद होता
मानव स्वयं मार्ग में अपने
फूल और कांटे बोता (५)
अद्ध्याय-२
सत्ता होती नहीं असत की
सत का कहीं अभाव नहीं
विज्ञ पुरुष ही इन दोनों का
तत्व जानते , अन्य नहीं (१६)
मात्र कर्म कर्त्तव्य तुम्हारा
फल पर है अधिकार नहीं
फल-इच्छा से किया कर्म
परमेश्वर को स्वीकार नहीं (४७)
सिद्धि-असिद्धि, समान समझ कर
दोनों में समभाव गहो
कार्य सफल , असफल दोनों में
एक भाव से मित्र ! रहो
(४८)
अद्ध्याय १८
जो भक्तों को यह रहस्यमय
गीताज्ञान सुनाएगा
इसमें कुछ संदेह नहीं
वह निश्चित मुझको पाएगा (६८)
उससे बढ़कर भक्त और प्रिय
नहीं जगत में है कोई --
और न होगा कहे सुने जो
गीता शुभ विज्ञानमयी ( ६९)
पठन करे जो परम धर्म मय
औ'' संवाद- मयी गीता
ज्ञान -यज्ञ से मुझे भजेगा ( ७०)
होगा मेरा मन-चीता
निश्छल-मन श्रद्धालु पुरुष जो
गीता का शुभ श्रवण करें
पाप मुक्त हो जायेंगे वे --
श्रेष्ठ लोक का वरण करें ! (७१)
श्री ईश्वरीदत्त द्विवेदी द्वारा किये गये
श्रीमद भगवदगीता के हिन्दी काव्य रूपान्तर से कुछ अंश.........
1 comment:
सरलाभावार्थाय आभारम् !
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