आकाश गंगा
जब चला जाता है सूर्य का आलोक रथ
क्षितिज के उस पार
और उतर आती है धरती पर नीरव निशा
अपनी रहस्यमयी श्यामल छवि के साथ
एक एक कर टिमटिमाने लगते हैं यत्र-तत्र
उज्ज्वल हीरक कणों जैसे तारक गण
देखते ही देखते जगमगा उठता है गगन
रत्नजटित विशाल दर्पण के सदृश्य
और तब , गहन अन्धकार को भेदती
प्रकट होती है उस अनंत विस्तार में -
एक छोर से दूसरे छोर तक प्रवहमान
स्वनामधन्या--आकाशगंगा
समाविष्ट किये अपने आँचल में
लक्ष -लक्ष प्रकाशपुंजों का वैभव
अगणित सूर्य ,चन्द्र और नक्षत्रों के विपुल संसार को
अपने दुर्निवार आकर्षण की परिधि में बांध
बह रही है अनवरत, कालदेव की सहगामिनी बन
नीले आकाश के हृदयस्थल को सींचती
स्वर्गिक सौंदर्य की अप्रतिम ज्योतिरेखा
वह स्वयंप्रभा-- आकाशगंगा !!
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