Tuesday, 7 March 2017
Saturday, 4 March 2017
लो फिर आ धमकी वह नन्हीं गौरय्या
चोंच में दबाये एक छोटा सा तिनका
खिड़की पर लगे कूलर की छत पर
साधिकार आ बैठी न जैसे कोई डर
घोंसला बनाने का करके इरादा
कैसी भोली , नासमझ है गौरय्या !
समझाया था उसको कई बार मैंने
कि कहीं और जाकर बनाये घरोंदा
उड़ाने की कोशिश की डरा धमका कर
पर सुनती कहाँ है वह कभी किसी की
बड़ी हठीली है मूर्ख गौरय्या !
कठोरता दिखा कर भी था रोकना चाहा
फेंक दिए एक बार सब तिनके उठाकर
हार मान ताकि चली जाय और कहीं
पर वह तो फिर फिर लौट आई है इधर ही
छोटी सी है पर बड़ी निडर गौरय्या !
पूछ ही बैठी मै आखिर तब उस से
चाहती हो क्यों यहीं पर घर बसाना
बताया था न तुम्हे सही नहीं है जगह यह
क्यों खोज लेती नहीं ठांव कोई और कहीं ?
पल भर सोच फिर चहचहाई गौरय्या !
, '' मुझे तो यहीं लगती है पूरी सुरक्षा
क्योंकि है भरोसा मेरा तुम पर यह पक्का
कि नहीं पहुँचाओगी कभी हानि मेरे घर को
न ही करने दोगी किसी और को भी ऐसा ''
बात सुन उसकी दिल मेरा भर आया
थोड़ी सिरफिरी पर प्यारी है गौरय्या !
Thursday, 2 March 2017
THE ONE AND THE MANY
The mountain all clad in silver
Oversees the landscape beneath,
Like a mighty monarch sitting on a throne
Oversees the landscape beneath,
Like a mighty monarch sitting on a throne
High above the earth
Spread out at the feet below,
Vivid flowers decorate the floor,
Emitting colors and fragrance,
Spread out at the feet below,
Vivid flowers decorate the floor,
Emitting colors and fragrance,
And the magic of myriad rainbows.
Settled in its sovereign state,
The mountain is a picture of grace,
While countless minor creatures,
Flourish in its benign shade.
Apart from poetic musings,
My mind can't stop wondering,
At this amazing treasure of nature,
Scattered on the lap of earth.
Be the imposing mountains,
Or vast expanse of deserts,
Broad-bossomed rivers and seas,
Or the most humble grasslands.
Won't we in our limited lifespan,
Scattered on the lap of earth.
Be the imposing mountains,
Or vast expanse of deserts,
Broad-bossomed rivers and seas,
Or the most humble grasslands.
Won't we in our limited lifespan,
Do well to love and admire,
This magnificent craft of nature,
Perfected by the Supreme Creator?
Sunday, 26 February 2017
नदी
नदी को बहने दो
बहती रहने दो उसे
बाँधो मत उसकी उन्मुक्त जलधार को
अपनी स्वार्थ-सिद्धि के निमित्त
बहने दो उसे अविराम
क्योंकि अनंत अवरोधों के बावजूद
निरंतर प्रवहमान रहना ही है उसकी प्रकृति
और नियति भी
बहने दो उसे निर्बाध और निश्चिन्त
क्योंकि अविरल प्रवाह ही बनाता है उसे
स्वच्छ , सुन्दर और कल्याणकारी
जीव-जगत के लिये
मत अवरूद्ध करो उसका नियत पथ
क्योंकि ठहरना नहीं है उसका स्वभाव
यदि रोक ली गयी बलपूर्वक कभी कहीं
तो खो देगी अपना नैसर्गिक स्वरुप
क्योंकि चिरंतन प्रवाह ही है
उसके शब्दातीत सौंदर्य और शुचिता का सम्वाहक
उसकी अनन्य जिजीविषा का सजल उत्सव
और मेरी प्रेरणा का अजस्र स्रोत भी
जाने दो उसे सोल्लास अपने गंतव्य की ओर
क्योंकि वही है उसके जीवन का लक्ष्य
कंक्रीट के बांधों में बांध उसे झील मत बनाओ
नदी है वह , उसे नदी ही रहने दो
अवांच्छित बंधनों में जकड़े जाना
स्वीकार्य नहीं होता किसी को भी
चाहे वह नदी हो या किसी अंतःस्थल से निःसृत
कोई नितांत सरल भावधारा !
Photo courtesy
eUttaranchal.com.
Thursday, 23 February 2017
JEEVAN KE PAL
जीवन के पल
पल पल करके आज बीतता
पल पल कर बीतेगा कल
रिसता जाता अनजाने ही
जीवन- घट का संचित जल
पल पल करके आज बीतता
पल पल कर बीतेगा कल
रिसता जाता अनजाने ही
जीवन- घट का संचित जल
देखा अपना बचपन मैंने हास और उल्लास लिये
फिर यौवन आया था मेरे सपनों का आकाश लिये
देखी इन्हीं पलों में मैंने सस्मित सुबह सलोनी आती
देखी प्रतिदिन दुपहर संध्या की बेला भी आती जाती
देखा मैंने पूर्ण चन्द्रमा , फिर उसको घटते बढ़ते
देखा निशि को नील गगन पर हीरे मोती जड़ते
चार पहर होते हैं दिन के, वही चार जीवन के भी
छोटे, बड़े सभी के हैं ये धनी और निर्धन के भी
ये पल काल देव के चेरे अमर और अक्षय होते
ये ही पल प्राणी जीवन के अच्छे बुरे समय होते
जन्म - मरण के बीच सभी को ये पल हैं अवसर देते
किन्तु सुफल मिलता उनको जो सदुपयोग इनका करते
ये पल बदला करते रहते
एक वर्ष में चार स्वरुप
बिना रुके चलते रहते धर,
एक रूप फिर दूजा रूप
ये ही चार रूप जीवन के
पहला वासंती बचपन
ग्रीष्म रूप यौवन आता
उत्साह भरा फिर लेकर मन
आती तब अधेड़ अवस्था
पावस के समकक्ष लगे
भरा भरा परिवार लिए वह
हरा भरा सा वृक्ष लगे .
अंतिम रूप बुढ़ापा पतझड़
शुष्क पात सी हो काया
सोचा करता है तब प्राणी
क्या खोया है क्या पाया
और सोचता जाता है वह
आता देख बुढ़ापा
कितना जीवन पथ बाकी है
कितना उसने नापा
ये पल शाश्वत और सनातन,
जाते हैं फिर आ जाते
पर क्या वे भी आते हैं जो
तज कर देह चले जाते ?
आने जाने के क्रम में ये
कर्मशीलता सिखलाते
सतत कर्म करने का हमको
अनुपम पाठ पढ़ा जाते .
देखा निशि को नील गगन पर हीरे मोती जड़ते
चार पहर होते हैं दिन के, वही चार जीवन के भी
छोटे, बड़े सभी के हैं ये धनी और निर्धन के भी
ये पल काल देव के चेरे अमर और अक्षय होते
ये ही पल प्राणी जीवन के अच्छे बुरे समय होते
जन्म - मरण के बीच सभी को ये पल हैं अवसर देते
किन्तु सुफल मिलता उनको जो सदुपयोग इनका करते
ये पल बदला करते रहते
एक वर्ष में चार स्वरुप
बिना रुके चलते रहते धर,
एक रूप फिर दूजा रूप
ये ही चार रूप जीवन के
पहला वासंती बचपन
ग्रीष्म रूप यौवन आता
उत्साह भरा फिर लेकर मन
आती तब अधेड़ अवस्था
पावस के समकक्ष लगे
भरा भरा परिवार लिए वह
हरा भरा सा वृक्ष लगे .
अंतिम रूप बुढ़ापा पतझड़
शुष्क पात सी हो काया
सोचा करता है तब प्राणी
क्या खोया है क्या पाया
और सोचता जाता है वह
आता देख बुढ़ापा
कितना जीवन पथ बाकी है
कितना उसने नापा
ये पल शाश्वत और सनातन,
जाते हैं फिर आ जाते
पर क्या वे भी आते हैं जो
तज कर देह चले जाते ?
आने जाने के क्रम में ये
कर्मशीलता सिखलाते
सतत कर्म करने का हमको
अनुपम पाठ पढ़ा जाते .
रचयिता ---- श्री ईश्वरीदत्त द्विवेदी
Picture courtesy ---
Wonderful colors of Nature
Wonderful colors of Nature
Sunday, 19 February 2017
EVENING SHADOWS
Moving slowly towards the western horizon,
The sun goes to plunge behind the hills,
As if exhausted by the day-long journey,
Traversing the seemingly endless sky.
Wonder if it goes there to rest,
In the comfort of a secret bower,
Or just continues on a different route,
To light up other side of the sphere.
Here all bedecked with starry jewels,
The evening descends as a shy maiden,
Painting the sky with a curious mixture,
Of blue, yellow, red, and saffron.
The sky is dotted from end to end,
With flocks of nest-bound anxious birds,
Their wings fluttering with maddening noise,
Desperate to reach their night shelters.
The sun, having gone far out of sight,
The moon, yet to make its cool appearance,
The stars in multitudes begin twinkling,
To ensure that light is not out forever.
And the world retires in peaceful slumber,
Resting its trust upon God and Nature,
That the Sun shall surely rise again
Soon after the night has had its tenure.
Tuesday, 31 January 2017
REMEMBERING THE FATHER OF THE NATION
The word flashed
Across the continents
Was he, indeed?
If death is the end
Was he, indeed?
If death is the end
Of physical existence
He did die decades ago.
Shot at by an assassin's bullets,
He became a victim of hatred,,
On that dark January evening
He did die decades ago.
Shot at by an assassin's bullets,
He became a victim of hatred,,
On that dark January evening
To the utter shock of the whole world.
For his life and work was not confined,
To his own country or region,
But extended to the whole mankind,
Striving for the right to freedom.
And despite the physical demise,
His aura couldn't be diminished,
He wasn't just flesh and blood,
But a spirit that can never be killed.
He was not simply a mortal man,
But an ideology personified,
A philosophy put into practice,
Acknowledged all over the world.
Evolved from a simple individual,
Into an institution of goodwill,
Spreading non-violence and kindness,
In the footprints of the great Buddha.
who practised what he professed,
And fought unjust oppression,
With no weapons of violence,
But peaceful non-co-operation.
How then he can ever be dead,
Who lives in millions of hearts,
Still striving to liberate humanity
From the clutches of selfish tyrants?
To ensure that goodwill pervades,
And peace be universal discipline,
Is there any other option in view,
But follow his proven principles?
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