धर्म, कर्म और अध्यात्म की त्रिवेणी श्रीमदभगवदगीता मानवता का वह अमर गान है- जो आत्मा को प्रकाश, चित्त को शांति और कर्म को दिशा प्रदान करता है. महर्षि वेद व्यास की यह कालजयी कृति मेरे पूज्य पिताजी श्री ईश्वरीदत्त द्विवेदी की सर्वाधिक प्रिय पुस्तक थी, जिसका अध्ययन वे आजीवन करते रहे. इसके दिव्य सन्देश को सरल और सुगम काव्य रूप में ढालना उनके कवि ह्रदय की प्रबल इच्छा थी, जैसा कि उन्होंने प्रथम संस्करण के 'आत्म कथ्य 'में लिखा है. उनका अनुभव था कि गीता की वाणी जब छन्दों की लय और काव्य की सुरभि से आप्लावित होकर कानों में गूँजती है तो वह केवल मनन का विषय न रहकर सीधे ह्रदय से संवाद करती है.इसी भाव और विश्वास के साथ, अपने सतत अध्ययन और साहित्य साधना के बल पर उन्होंने इस कृति का सृजन करके अपनी चिर आकांक्षा को पूर्ण किया.
गीता जैसे अप्रतिम, कालजयी संस्कृत ग्रन्थ का यह काव्य -रूपान्तर अपनी सरलता और माधुर्य से पाठकों को उस शाश्वत सत्य से परिचित कराता है जो श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर अर्जुन को उपदेश स्वरुप प्रदान किया था. यह ज्ञान केवल अर्जुन को ही नहीं, बल्कि उनके माध्यम से समस्त जगत को दिया गया उद्बोधन है, जिसमें जीवन को समझने के अनमोल सूत्र निहित हैं. यह रूपान्तर मेरे पूज्य पिताश्री की कठिन साधना का प्रतिफल है, उनका श्रद्धा भाव, गहन अध्ययन और भाषा कौशल इस कृति में सर्वत्र परिलक्षित है. संस्कृत के गूढ श्लोकों का भावार्थ सहज और प्रवाहपूर्ण छन्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है कि गीता का दार्शनिक गाँभीर्य भी बना रहता है और इसकी जीवनोपयोगी शिक्षायें भी पाठक तक सरलता से पहुँच जाती हैं.
इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 1999 में स्वयं उनके कर कमलों द्वारा हुआ था. अब से लगभग ढाई दशक पूर्व प्रकाशित इस रचना को सामान्य पाठकों के साथ -साथ साहित्य जगत में भी व्यापक सराहना मिलती रही है जिसके कुछ उदाहरण इस संस्करण में भी पढ़े जा सकते हैं.
वर्ष 2008 में पिताजी के स्वर्गवास के पश्चात् उनकी पुण्य- स्मृति में इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण मेरे अनुज श्री दिनेश चंद्र द्विवेदी द्वारा सन 2009 में प्रकाशित किया गया, जिसे पूर्व की भाँति ही भरपूर प्रशंसा मिली. उल्लेखनीय है कि प्रथम प्रकाशन से अब तक की सुदीर्घ अवधि में समय समय पर पाठकों की मौखिक / लिखित प्रतिक्रियायें निरंतर मिलती रही हैं जो इस बात की द्योतक हैं कि इतने वर्षो के बाद भी यह रचना कहीं न कहीं अब भी पढ़ी जा रही है, और मूल ग्रन्थ की भाँति आज भी प्रासंगिक और प्रभावी बनी हुई है.
इस उत्कृष्ट काव्य रचना को एक नवीन संस्करण द्वारा कुछ और पाठकों तक पहुँचाने का विचार अनायास ही मेरे मस्तिष्क में आया, जिसे किसी दैवी प्रेरणा का संकेत मानकर मैंने श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य करते हुए साकार करने का प्रयास किया. मेरा मानना है कि यह कृति न केवल गीता के सन्देश को नई पीढ़ी तक पहुँचाने का माध्यम है, वरन उस श्रेष्ठ परंपरा का भी उदाहरण है जिसमें अध्यात्म और साहित्य का सुन्दर संगम दिखाई देता है यहाँ न केवल शास्त्र की गंभीरता है, बल्कि काव्य का सौंदर्य भी है, न केवल उपदेश है, बल्कि आत्मीय संवाद भी है.
अपने स्वर्गीय पिताजी की इस अमूल्य धरोहर को उनके प्रति श्रद्धांजलि स्वरुप पुनः प्रकाशित करते हुए मुझे परम संतोष की अनुभूति हो रही है. यह केवल एक पुस्तक नहीं, अपितु उनकी गहन तपस्या, साहित्यिक मेधा, जीवन दृष्टि और आत्मीय स्मृतियों का जीवंत अभिलेख है . यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनकी कठिन साधना के इस सुफल को एक बार फिर पाठकों तक पहुँचाने का अवसर मिला है. आशा करती हूँ कि मेरा यह विनम्र प्रयास गीता के शाश्वत सन्देश को नई पीढ़ियों तक भी पहुँचाने का माध्यम बन कर अधिकाधिक पाठकों के जीवन में सार्थक एवं गुणात्मक परिवर्तन लाने में सहायक होगा.
नये और पुराने सभी पाठकों के लिये,
अनेक शुभकामनाओं के साथ,
डॉ इन्दु नौटियाल
विजयादशमी , 02 अक्टूबर, 2025