उस सूनी सड़क से गुजरते हुये एक दिन
अचानक ही दृष्टि मेरी पड़ी थी उस पर
पत्र पुष्प विहीन , निराभरण रूप उसका
देख कर मन हो गया था विचलित
विगत वैभव की स्मृतियों में खोया
वर्त्तमान दुर्दशा पर आंसू बहाता सा
मौन रहकर भी जैसे बहुत कुछ बोलता
अनाकर्षक , फिर भी अपनी ओर खींचता सा !
ठिठक गए कदम कुछ सोच अनायास ही
व्यथा कथा उसकी सुनने की चाह जागी
पूछा क्यों हो इतने उदास प्रिय बन्धु तुम
कौन सा दुःख साल रहा तन मन को ?
भरकर आह लम्बी बाँटने लगा दर्द अपना
'' सोचता हूँ हुई क्यों दुर्दशा आज ऐसी
कभी था हरा भरा संसार मेरा सुन्दर
खींच लाता था सबको बरबस पास मेरे
अनगिनत पँछियों का था सुखद रैनबसेरा
घरौन्दे बना सपरिवार रहते थे निश्चिन्त
धूप से व्याकुल थके हारे पथिक भी तो
रुकते थे यहाँ शीतल छांव को पाकर
और आज यहाँ उपेक्षित किसी भिक्षुक सा
अकेला ही झेलता हूँ दुर्दिन के दंश को
एक दृष्टि भी कोई डालता नहीं मुझ पर
फिर बोलो उदास नहीं होऊं मै क्योंकर ? ''
स्नेह से सहला उसे आश्वस्त किया मैंने
अकेला ही झेलता हूँ दुर्दिन के दंश को
एक दृष्टि भी कोई डालता नहीं मुझ पर
फिर बोलो उदास नहीं होऊं मै क्योंकर ? ''
स्नेह से सहला उसे आश्वस्त किया मैंने
'' दुःख के दिन अब बीत चले हैं भाई
देखो वह आती वसंत की सवारी है
पतझड़ और शीत की तो तुम समझो विदाई
भर देंगी शीघ्र ही नयी कोंपले तुम्हारा तन
शीतल सघन छांव देख रुकेंगे पथिक भी
और पंछी तो सदा से हैं परिजन से तुम्हारे
गूंजेगा उनका मधुर कलरव यहाँ फिर से
प्रतीक्षा की है तुमने बहुत , थोड़ी सी और सही
लौटेंगी सब खुशियाँ मौसम बदलते ही
नहीं विचलित होती कभी प्रकृति अपने क्रम से
पतझड़ के बाद फिर है आता वसन्त ही !!
Photo courtesy
Shree Ramesh Chhetry
Shree Ramesh Chhetry
with permission and thanks
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