Saturday, 30 April 2022

दृष्ट से अदृष्ट तक ...


                                              


 ईश्वर को देखा  है तुमने कभी

सुनी है उसकी कोई  आवाज़ ?

 जानती हूँ,  ''नहीं'' होगा तुम्हारा उत्तर,

 और स्वयं मैं भी नहीं करती ये दावा.


किन्तु यह तो है शाश्वत सत्य,

कि स्वयं  सदा अदृष्ट रहकर भी,

 पालन  और नियंत्रण करता  वह,

 समस्त  जड़- चेतन का.




   उसकी अनन्य रचना,  धैर्यवान  धरती

   अगणित जीवों को अपने अंचल में समेटे,

     चमत्कृत  करती  मेरे मन को,

   अपनी क्षमता ,सहनशीलता से .


     सुदूर क्षितिज तक लहराता  सागर,

     विस्मित  मुझे करता सदा- सर्वदा 

     कि क्यों नहीं तोड़ता वह तटों के बंधन को,

     समाहित  कर लेने धरती को स्वयं में.


         राज्य विस्तार की  महत्वाकांक्षा

      उद्वेलित नहीं करती कभी उसके मन को ?

     लौट जाता क्यों बस छू कर किनारों को,

      नहीं करता क्यों   मर्यादा  का उल्लंघन?


     प्राणदायी वायु को देखा  किसी ने कभी?

     जी नहीं सकते पल भर भी बिना जिसके,

     कौन करता सुनिश्चित उसके सतत प्रवाह को,

   कि जीवन- चक्र धरती पर घूमता रहे  अनवरत?

 

  

      

      दीखती है  प्रतिदिन अनंत आकाश पर,

        तेजोमय सूर्य व  रजत चन्द्र की आभा,

       और कभी मेघों  के गर्जन  की ताल पर,

        होता  नृत्य-गायन वर्षा सुंदरी का.


   साक्ष्य नहीं क्या ये उस परम अस्तित्व के,    

   निराकार होकर भी जो है सर्वाधिक सक्षम?

    क्या हुआ यदि नहीं दीखता किसी को,

   विद्यमान है निश्चित वह  जग के कण-कण में.

   

    

    

   

   

   

   

    


    

      


     

      

     

      

        

        









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