अपने अल्प ज्ञान के आधार पर किये गये इस काव्य रूपान्तर को मैं सर्व प्रथम अपने आराध्य देव वासुदेव
भगवान श्री कृष्ण के चरणों में ही समर्पित करता हूँ जिनकी कृपा से मैं इस अत्यंत
कठिन कार्य को संपन्न करनेमें समर्थ हो सका.
पैंतीस वर्ष की सुदीर्घ अवधि में पुलिस विभाग की सेवा में व्यस्त रहते हुए भी गीता का अध्ययन करता रहा हूँ. और उसके संदेशों, शिक्षाओं का प्रभाव मन - मस्तिष्क पर निरंतर अंकित होता हुआ महसूस किया. छात्र जीवन से ही काव्य -रचना में भी रुचि थी, अतः मेरी हार्दिक इच्छा थी कि इस महान, पावन और अद्वितीय ज्ञानामृत का सरल हिंदी में अनुवाद करके इसे उन लोगों तक भी पहुँचाया जाये जो संस्कृत भाषा का ज्ञान न होने के कारण इस अमृत वाणी से वंचित रह जाते हैं.
प्रभु- कृपा से सकुशल सेवा- निवृत्ति पर मुझे इस इच्छा को कार्य रूप में परिणत करने के लिये पर्याप्त समय मिला और मैं उसका सदुपयोग करने में जुट गया. अनेक व्यवधानों के कारण लगभग दो वर्ष की अवधि में यह कार्य संपन्न हो पाया. अब, जब कि यह रचना आकार ले चुकी है, तो मैं इसे उन समस्त धर्म - प्राण नर - नारियों को अर्पित करना चाहता हूँ, जिन्हें भगवान में अटूट आस्था है और जो उनके मुखारविन्द से निः सृत इस अमरवाणी का रसास्वादन करने के इच्छुक हैं.
मैं इस रूपान्तर को सभी विद्वत जन एवं गीता -मर्मज्ञों को भी इस क्षमा याचना सहित अर्पित करता हूँ कि इसमें वे जो भी त्रुटियाँ अथवा कमियाँ पायें, उन्हें मेरी भक्ति - भावना के रूप में स्वीकार करें, क्योंकि विषय अत्यंत गहन है और इस पावन गंगा के श्लोकों की देश- विदेश के विद्वान अपने- अपने दृष्टि कोणों से व्याख्या करते आये हैं. मैंने जन साधारण के हित में उसे सरल भाषा में प्रस्तुत करने का साहस किया है. यदि मेरा यह प्रयास सफल हुआ तो यह मेरे जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि होगी, और मैं अपने जीवन को धन्य समझूँगा.
पुस्तक के अनेक छन्दों के रूपान्तर में मुझे अमूल्य सहयोग एवं पथ प्रदर्शन प्रदान करने के लिये मैं हिंदी के मूर्धन्य विद्वान, लेखक और कवि डॉ श्रीविलास डबराल 'विलास' का ह्रदय से आभारी हूँ.
पुस्तक के प्रकाशन में मुझे पर्याप्त आर्थिक सहायता एवं प्रोत्साहन के लिये मैं
अपने अभिन्न मित्र पं. बद्रीदत्त शर्मा और उनके सुपुत्र चि. राजेंद्र प्रसाद शर्मा, मेरी पुत्री हेमा एवं डॉ. डी. एस. पोखरिया ( हिंदी विभाग, कुमाऊं विश्वविद्यालय) का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ, जिनके सहयोग से इस पुस्तक का प्रकाशन संभव हो सका. मैं अपनी पत्नी उमा का भी आभारी हूँ. रूपान्तर संपन्न होने तक मुझे उनका अनवरत सहयोग एवं प्रोत्साहन मिलता रहा.
ईश्वरीदत्त द्विवेदी.
(प्रथम संस्करण से )
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