ऐसे अप्रतिम ग्रन्थ गीता का यह काव्यरूपांतर अपनी सरलता और माधुर्य से पाठकों को उस शाश्वत सत्य से परिचित कराता है जो श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर अर्जुन को उपदेश स्वरुप प्रदान किया था. यह ज्ञान केवल अर्जुन को ही नहीं बल्कि उनके माध्यम से समस्त जगत को दिया गया उद्बोधन है जिसमें जीवन को समझने के अनमोल सूत्र निहित हैं. प्रस्तुत रूपान्तर मेरे पूज्य पिताजी की कठिन साधना का प्रतिफल है. उनका श्रद्धा भाव, गहन अध्ययन और भाषा कौशल इस कृति में परिलक्षित है. संस्कृत के गूढ श्लोकों का भावार्थ सहज और प्रवाहपूर्ण छन्दों में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया हैं कि गीता का दार्शनिक गांभीर्य भी बना रहता है और साथ ही इसकी जीवनोपयोगी शिक्षायें भी पाठक तक सरलता से पहुँच जाती हैं.
वर्ष 1999 में प्रकाशित इस रचना को सामान्य पाठकों के साथ - साथ साहित्य जगत में व्यापक सराहना मिली. पिताजी के स्वर्गवास के पश्चात् सन 2009 में मेरे अनुज श्री दिनेश चंद्र द्विवेदी द्वारा इसका द्वितीय संस्करण मुद्रित कराया गया, जिसे पुनः भरपूर प्रशंसा मिली. इन दो दशकों की अवधि में समय - समय-- पर अनेक पाठकों से प्रतिक्रियायें मिलती रही हैं, जो इस बात की द्योतक हैं कि इतने वर्षों के बाद भी यह पुस्तक कहीं न कहीं पढ़ी और सराही जा रही है और मूल ग्रन्थ की भाँति आज भी प्रासंगिक और प्रभावी बनी हुई है, अतः एक नवीन संस्करण द्वारा इस रचना को पुनः प्रकाशित कर कुछ और सुधी पाठकों तक भी पहुँचाने का विचार मेरे मन में आया, जिसे किसी दैवी प्रेरणा का संकेत मानकर मैंने श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य करके साकार करने का प्रयास किया है.
प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से पूर्ववर्ती संस्करणों के स्वरुप में सामान्य सा परिवर्तन है ,किन्तु मूल रचना यथावत है. वह स्वयं में ही इतनी परिपूर्ण है कि उसमें कुछ भी जोड़ने या घटाने की न तो आवश्यकता है और न औचित्य, अतएव इस नवीन कलेवर में भी उसे पूर्ण सम्मान के साथ ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है.
अपने स्वर्गीय पिताश्री की इस अनमोल कृति के नवीन संस्करण को उनके प्रति श्रद्धांजलि स्वरुप प्रकाशित करते हुए मुझे परम संतोष की अनुभूति हो रही है. यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनकी अमूल्य साधना के इस सुफल को पुनः पाठकों तक पहुँचाने का अवसर मिला है. आशा करती हूँ कि पूर्व की भाँति यह पुस्तक भी नये \ पुराने सभी पाठकों को गीता के अमृत सन्देशों से समृद्ध और आनंदित करेगी और वे इसको उसी श्रद्धा और प्रेम से अंगीकार करेंगे जिस भाव से इसे पुनर्प्रकाशित किया गया है
. इन्दु नौटियाल
देहरादून
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